Saturday, 13 May 2017

कीरत बाबानी

पिछले दिनों हमने इंदौर सिंधु शोधपीठ के अंतर्गत सिंधी साहित्यकार स्व. की बरसी मनाई।
1922 में अविभाजित भारत के सिंध प्रांत के नवाब शाह के पास मोरो गाँव में पैदा हुए कीरत बाबानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। 1942 में महात्मा गाँधी के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने भाग लिया। कीरत बाबानी सिंधी के बड़े साहित्यकार होने के अलावा सिंधी भाषा के लिए ताउम्र लड़ने वाले एक्टिविस्ट भी थे। वे उन पहले सिंधी नेताओं में से थे, जिन्होंने सिंधियों को अपनी अलग पहचान बनाए रखने की जरूरत समझाई। आजादी के बाद जब सिंधी अविभाजित भारत के सिंध से विस्थापित हो भारत के अलग-अलग शहरों में बस गए तब कई सिंधी बड़े नेताओं का मानना था कि अब सिंध वासियों को अपनी सिंधी पहचान मिटाकर सिर्फ हिंदू कहलाना चाहिए और जो जहां है उस प्रदेश के साथ जज़्ब हो जाना चाहिए। सिंधी नेता अब तक एक अल्पसंख्यक समुदाय के नेता थे , पहली बार उन्हें पूरे देश की राजनीति में भूमिका निभाने का मौका मिल रहा था। आजादी के इस हैंग-ओवर में वे अपनी सिंधी पहचान को भुला देना चाहते थे। कीरत बाबानी 1950 में जब पाकिस्तान सरकार द्वारा जबर्दस्ती जहाज में बैठाकर डिपोर्ट कर दिए गए तब से 1956 तक लगातार वे सिंधी पहचान के लिए नेताओं और आमजन को जागरुक करते रहे, लेकिन उनकी बात 1956 में लोगों को समझ में आई जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू चाहते थे कि राज्य सिर्फ प्रशासनिक इकाई रहें ,किंतु ऐसा न हो सका। लगभग सभी राज्य भाषा की बुनियाद पर बने। तमिलनाडु तमिल के लिए, केरल मलयाली लोगों के लिए, कर्नाटक कन्नड़ के लिए ! तब सिंधी नेताओं का यूटोपिया टूटा और वे धरातल पर आए। उन्हे समझ मे आया कि नये भारत मे राजनीतिक अधिकारों और भाषा का क्या संबंध होगा ।और यह भी कि सिंधी किसी एक राज्य की भाषा न होने की वजह से कैसी मुश्किल में आने वाली है ।
उसके बाद कीरत बाबानी सहित कुछ युवाओं की अगुवाई में सिंधी भाषा को संविधान के आठवें शेड्यूल में शामिल करने के प्रयास शुरू हुए, जिसके फलस्वरुप 1967 में सिंधी को आठवें शेड्यूल में शामिल किया गया।इस मुहिम में उनके साथ ऐ. जे .उत्तम और गोविंद माली भी जुड़े। ये तिकड़ी हमेशा साथ रही। अखिल भारत सिंधी बोली अंए साहित्य सभा के बैनर तले इन तीनों ने सिंधी भाषा के लिए बहुत काम किया। कीरत बाबानी इस सभा के लगभग 20 वर्षों तक अध्यक्ष बने रहे। ये तीनों एयर कंडीशंड कमरों या पहाड़ों पर बैठकर कविताएँ लिखने वाले साहित्यकार नहीं थे बल्कि आमजनों के बीच जमीन पर काम करने वाले संघर्षशील एक्टिविस्ट भी थे।इन लोगों ने न सिर्फ भाषा के लिए काम किया बल्कि सिंधियों के लिए एक अलग प्रदेश की मांग समेत तमाम मुद्दों पर आंदोलन किये । कीरत बाबानी जानते थे कि किसी एक लोकसभा या विधानसभा सीट पर निर्णायक संख्या में न होने की वजह से सिंधी अब 'पालिटिकल लेफ्ट ओवर' हैं इसलिये छोटा ही सही सिंध प्रांत होना चाहिए । उनका मानना था कि कच्छ ही वह धरती है जहाँ सिंधियों को अपना एक अलग प्रांत बनाए जाने की गुंजाइश हो सकती है। याद रहे आजादी के तुरंत बाद महाराजा कच्छ ने सिंधियों के लिए एक अलग शहर बसाने के लिए 15000 एकड़ जमीन दी थी। सिंधी नेता भाई प्रताप का ख्वाब था कि वहाँ सिंध बसे , परंतु वह पूरा न हो सका।
इस बीच सिंधी भाषा को किस लिपि में लिखा जाए, यह झगड़ा भी चलता रहा। कीरत बाबानी सिंधी की मूल लिपि जो अरबी जैसी है, के पक्ष में रहे। वे देवनागरी लिपि के खिलाफ थे।
कीरत बाबानी ताउम्र अपनी धरती सिंध से जुड़े रहे। वे कहते थे सियासत की बनाई सरहदें बदलती रहती हैं, परंतु जीने के तौर-तरीके , भाषा -संस्कृति सियासी सरहदों को नहीं मानते। वे सिंध के लोगों को अपना मानते थे और जब पाकिस्तान में जिए- सिंध मूवमेंट शुरू हुआ तो उन्होंने खुलकर उसका साथ दिया। जी.एम सैयद जो 'जिए सिंध' मूवमेंट के अगुवा थे, उनकी कई किताबें जो पाकिस्तान में नहीं छप सकतीं थी, उन्होंने हिंदुस्तान से छपवाकर भेजीं। जी.एम सैयद को भारत आमंत्रित करने और राजीव गाँधी से मिलवाने मे उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी । यहाँ तक कि कई लोग कहते थे कि कीरत बाबानी जी.एम सैयद के सचिव की तरह काम करते रहे। वे हमेशा एक बार फिर सिंध की धरती देखना चाहते थे पर पाकिस्तान की सरकार ने कभी उन्हें वीजा नहीं दिया। उनकी मौत के बाद उनकी अस्थियां जरूर सिंधु नदी में प्रवाहित की गई। 2015 मे उनकी मौत पर सिंध असेंबली ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
बतौर साहित्यकार उन्होंने 18 से अधिक किताबें लिखी हैं, जिनमें कहानी संग्रह, कविताएँ, आलोचना, सफरनामा और उनकी आत्मकथा कुछ बुधायुम , कुछ लिकायुम (कुछ बताया, कुछ छुपाया) भी शामिल है। उनकी किताब ‘धरती जो सड‘ (धरती की पुकार )पर उन्हें 2006 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
इसके अलावा उन्हें 1980 मे सोवियत लेण्ड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
7 मई 2015 को मुंबई में दुनिया को अलविदा कहने से पहले कीरत बाबानी ने एक भरी पूरी सार्थक जिदंगी जी ।
आजाद भारत के सिंधीयो की कहानी जब भी कही जायेगी वो कीरत बाबानी के जिक्र किये बगैर अधूरी होगी ...।