Thursday, 24 August 2017

सिंध का बंटवारा पंजाब और बंगाल से अलग है !

सिंध  की याद में 70 बरस ...

सिंध  को हमसे बिछड़े 70 बरस हुए ! सिंधियों की जो पीढ़ी बंटवारे के दौरान इस पार आई थी उनमें से ज्यादातर अब इस दुनिया में नहीं हैं .बचे-खुचे कुछ बूढ़ों की धुंधली यादों के सिवा अब सिंध सिर्फ हमारे राष्ट्रगान में रह गया है . इन 70 सालों में हमें यह एहसास ही नहीं हुआ कि हमने सिंध को खो दिया है .इस बीच सिंधियों की दो पीढ़ियां आ गई है पर सिंध और सिंधियों के पलायन के बारे में हम अब भी  ज्यादा कुछ नहीं जानते   .
बंटवारे का सबसे ज्यादा असर जिन तीन कौमों पर पड़ा उनमें पंजाबी ,बंगाली और सिंधी थे .मगर  बंटवारे का सारा साहित्य फिल्में और तस्वीरें पंजाब और बंगाल की कहानियां से भरी है  . मंटो के अफसानों से भीष्म साहनी की 'तमस' तक बंटवारे के साहित्य मे पंजाब और  बंगाल की कहानियां हैं. .सिंध उनमें कहीं नहीं है.
पंजाबी और बंगालियों के मुकाबले सिंधियों का विस्थापन अलग था  . पंजाब और बंगाल का बंटवारा एक बड़े सूबे के बीच एक लकीर खींच कर दो हिस्सों में बांटकर किया गया  था .सरहद के दोनों तरफ भाषा ,खान पान और जीने के तौर तरीके एक से थे  .पर सिंधियों के प्रांत का विभाजन नहीं हुआ था .उनसे पूरा का पूरा प्रांत छीनकर उन्हें बेघर और अनाथ कर दिया गया था.
यह बात हैरान करती है कि  हमारे साहित्यकारो इतिहासकारों  ने  कभी यह जानने की कोशिश नहीं की,   कि बंगाल और पंजाब की तरह सिंध का विभाजन क्यों नहीं हुआ ? क्यों 12 लाख हिंदू सिंधियों को देशभर में बिखर जाना पड़ा ? अगर विभाजन का आधार धर्म था तो सिंध तो पश्चिम की तरफ हिंदू धर्म का आखिरी छोर माना जाता है ! वह सिंध जहां के राजा दहिरसेन अंतिम हिंदू सम्राट माने जाते हैं !  वह  सिंध जहां 1940 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देशभर के मुकाबले सबसे अधिक प्रचारक रहते थे ! उस सिंध को सिंधी पूरा का पूरा छोड़ आए...?
इस सवाल को समझने के लिए आपको विभाजन के पंजाबी और बंगाली अनुभव को भूलना होगा . बंटवारे के वक्त सिंध का माहौल पूरे देश से अलग था . वहां न तो कोई कौमी दंगे थे ना हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत का माहौल. ज्यादातर सिंधी मानते थे कि बंटवारा एक अफवाह है ,और हमें कहीं नहीं जाना है . नंदिता भावनानी अपनी किताब ' मेकिंग ऑफ एग्जाइल ' में लिखती हैं -" 3 जून 1947 को माउंटबैटन ने भारत की आजादी की घोषणा की तब  बिहार ,दिल्ली ,लाहौर ,कलकत्ता समेत तमाम जगहों पर कौमी दंगे चल रहे थे पर सिंध लगातार शांत बना रहा ."  इक्का-दुक्का हादसों को छोड़ दें तो सिंधी हिंदू अपने सिंधी मुसलमान भाइयों के साथ अमन और मोहब्बत के साथ रहे .  शांति और भाईचारे की वजह से  सिंधियों को लगा  कुछ दिनों बाद  सब ठीक हो जाएगा  . गांधी ने  जो यूटोपियन  ख्वाब देखा था सिंध  उसे सचमुच जी रहा था .
सिंध में कौमी दंगे ना होने की दो वजहें थी पहली सिंधियों का सूफियाना शांत स्वभाव . सिंधु नदी के  पानी में शायद मोहब्बत की तासीर है कि सिंध में हिंदू और मुसलमान 1100 साल तक  साझा बोली  , साझी तहजीब के साथ प्रेम से रहे  . बेशक धर्म अलग था ,पर  सिंधियों ने  उसका भी तोड़ कर लिया था . सूफी दरवेशों ने सिंध को भक्ति और इबादत का एक साझा रास्ता दिखाया जहां हिंदू मुसलमान बगैर अपना धर्म छोड़े साथ साथ इबादत सकते  थे.  सूफीइज़्म  पैदा भले ही सिंध में ना हुआ हो पर शांत  स्वभाव  वाले सिंधीयों को  यह रास आ गया . आज भी  सिंध में  सूफियों के  मशहूर डेरे हैं  जहां लाखों लोग इबादत के लिए जाते हैं  .सूफियाना मिजाज़ और भाईचारे के अलावा सिंध में दंगे ना होने का एक व्यावहारिक कारण भी था . एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता  .1843 में अंग्रेजों के आने के बाद से सिंध में हिंदुओं ने तेजी से तरक्की की .अंग्रेजों द्वारा सिंध को बंबई प्रेसिडेंसी में शामिल करने के फैसले ने भी हिंदुओं को ताकत दी .1947 आते आते अल्पसंख्यक हिंदुओं के पास सिंध की 40% से अधिक जमीन थी.  ज्यादातर व्यापार धंधा हिंदुओं के पास था. सिंधी मुसलमान  जान रहे थे कि हिंदुओं के जाने का मतलब काम-धंधों का खत्म होना है जिसका असर उनके रोजगार पर आएगा. इसलिए मुसलमानों ने आखिरी समय तक हिंदुओं को रोकने की कोशिश की. काम धंधे खत्म होने का उनका शक सही था .सिंध की आर्थिक तरक्की पर हिंदुओं के जाने का बुरा असर पड़ा .कई शहर और धंधे आज भी इस हादसे से उबर नहीं पाए हैं.
बंटवारे का पहला एहसास सिंधियों को उन मुसलमानों ने कराया जो बिहार-यूपी और कलकत्ता से निकलकर सिंध में बसने आए . मुहाजिर कहलाए जाने वाले ये लोग अपने साथ कौमी दंगों के खौफनाक किस्से लाए थे. इन  लोगों ने  अफवाहों  और खौफ का सिलसिला  चलाया . फिर 1948 में कराची में जब दंगा हुआ तब सिंधियों का पलायन शुरू हुआ . परंतु तब भी वह घर की चाबीयां पड़ोसियों को दे कर आए कि  माहौल ठीक होते ही  हम लौट आएंगे . कोई सिंधी हिंदू यह सोचकर नहीं निकला  कि वह हमेशा के लिए अपनी मिठड़ी सिंध से जुदा हो रहा है . इस मुगालते  की कीमत  उन्हें चुकानी .
सिंध से भारत आने के दो रास्ते थे .पहला रेलगाड़ी द्वारा मरुस्थल पार कर जोधपुर आना और दूसरा कराची से समुद्र के रास्ते मुंबई या जामनगर . रेलगाड़ी और जहाज कम थे और लोग ज्यादा  ! इसलिए कराची में अपना नंबर आने तक कभी कभी 15  से 20 दिन  इंतजार भी करना पड़ता था . पर ना  तो इंतजार के दौरान और ना ही सफर के दौरान कोई  बड़ा हादसा हुआ . सफर असुविधाजनक था पर बारह  लाख  सिंधी हिंदू  मुंबई और जोधपुर पहुंच गए .. यह और बात है कि जोधपुर के स्टेशन और मुंबई के बंदरगाह से बाहर निकलते ही वह एक ऐसी दुनिया में आ गए थे  जहां की न बोली उन्हें  आती थी ना रहन-सहन पता था .अब एक अजनबी देश में ,अजनबी लोगों के साथ, एक अजनबी भाषा में उन्हें अपनी रोटी कमाने की जुगाड़ करनी  थी .जाहिर है इस जद्दोजहद में उन्हें अपना साहित्य ,भाषा ,गीत, खानपान और तहजीब की कुर्बानी देनी थी.
इतिहासकार मोहन गेहानी अपनी किताब 'डेजर्ट लैंड टू मेन लैंड ' में सवाल उठाते हैं कि बंटवारे के वक्त किसी राजनेता ने नहीं सोचा सिंध का बंटवारा कैसे होगा  .होना तो यह चाहिए था कि सिंधियों की कुर्बानी के बदले उन्हें एक सिंध का एक हिस्सा लेकर  नया प्रांत प्रांत भारत में बना कर दिया जाता ,  ताकि सिंधी भाषा और संस्कृति जिंदा रह सके . भारत मे कच्छ का इलाका जिसकी भाषा का  सिंधी का ही एक डायलेक्ट है , सिंधियों के को बचाने के लिए एक माकूल जगह हो सकती थी  .इसके लिए कोशिश भी हुई . सिंधी नेता भाई प्रताप इस बात को लेकर महात्मा गांधी से मिले .गांधीजी ने भी कच्छ में सिंधियों को बसाने के प्रस्ताव का समर्थन किया .महाराजा कच्छ ने 15000 एकड़ जमीन सिंधु रीसेटलमेंट कारपोरेशन को दान में दी .पर सिंधियों की बदनसीबी कि अचानक सरकार ने राजाओं द्वारा अपनी संपत्तियां रिश्तेदारों को दान में देने से बचाने के लिए इस तरह के दानपत्र कानून बनाकर अमान्य कर दिए .यह दानपत्र भी उसी कानून की चपेट में आ गया .फिर कानूनी लड़ाई लड़ते लड़ते इतना वक्त बीत गया कि इस बीच सिंधी भारत के अलग-अलग जगहों पर बस गए .
सिंधियों के लिए अलग प्रांत की बात अब भी उठती है . बिहार के हेमंत सिंह ने एक किताब लिखी है 'आओ हिंद में सिंध बनाएं'.  उनका कहना है -जब भारत के राष्ट्रगान में सिंध है तो जमीन पर भी होना चाहिए  . पर  सिंध शायद  किसी मेले में भारत के इतिहास की उंगली से छूट कर गुमा हुआ बच्चा है जिसके मिलने की आस हर दिन के साथ और धुंधला जाती है.जहां तक सिंधियों  का सवाल है उन्हें अब जाकर समझ आ रहा है कि जमीन के अलावा भाषा , तहजीब और वो तमाम चीजें क्या है , जो  बंटवारे ने उनसे छीन ली.  शायद अब वे समझ पा रहे हैं कि सिंधी साहित्यकार कृष्ण खटवानी  की इस बात का मतलब क्या है कि  -  " मैं कविता कैसे लिखूं  ...,  मेरी कलम सिंधु नदी के किनारे बहती हवाओं में ही चलती है ..."
हादसा बड़ा हो तो उसे देखने के लिए थोड़ा दूर जाना पड़ता है .शायद सत्तर साल वो फासला है जिसके पार जाकर हम सिंध  को खोने के नुकसान का अंदाजा लगा सकें...

Saturday, 13 May 2017

कीरत बाबानी

पिछले दिनों हमने इंदौर सिंधु शोधपीठ के अंतर्गत सिंधी साहित्यकार स्व. की बरसी मनाई।
1922 में अविभाजित भारत के सिंध प्रांत के नवाब शाह के पास मोरो गाँव में पैदा हुए कीरत बाबानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। 1942 में महात्मा गाँधी के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने भाग लिया। कीरत बाबानी सिंधी के बड़े साहित्यकार होने के अलावा सिंधी भाषा के लिए ताउम्र लड़ने वाले एक्टिविस्ट भी थे। वे उन पहले सिंधी नेताओं में से थे, जिन्होंने सिंधियों को अपनी अलग पहचान बनाए रखने की जरूरत समझाई। आजादी के बाद जब सिंधी अविभाजित भारत के सिंध से विस्थापित हो भारत के अलग-अलग शहरों में बस गए तब कई सिंधी बड़े नेताओं का मानना था कि अब सिंध वासियों को अपनी सिंधी पहचान मिटाकर सिर्फ हिंदू कहलाना चाहिए और जो जहां है उस प्रदेश के साथ जज़्ब हो जाना चाहिए। सिंधी नेता अब तक एक अल्पसंख्यक समुदाय के नेता थे , पहली बार उन्हें पूरे देश की राजनीति में भूमिका निभाने का मौका मिल रहा था। आजादी के इस हैंग-ओवर में वे अपनी सिंधी पहचान को भुला देना चाहते थे। कीरत बाबानी 1950 में जब पाकिस्तान सरकार द्वारा जबर्दस्ती जहाज में बैठाकर डिपोर्ट कर दिए गए तब से 1956 तक लगातार वे सिंधी पहचान के लिए नेताओं और आमजन को जागरुक करते रहे, लेकिन उनकी बात 1956 में लोगों को समझ में आई जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू चाहते थे कि राज्य सिर्फ प्रशासनिक इकाई रहें ,किंतु ऐसा न हो सका। लगभग सभी राज्य भाषा की बुनियाद पर बने। तमिलनाडु तमिल के लिए, केरल मलयाली लोगों के लिए, कर्नाटक कन्नड़ के लिए ! तब सिंधी नेताओं का यूटोपिया टूटा और वे धरातल पर आए। उन्हे समझ मे आया कि नये भारत मे राजनीतिक अधिकारों और भाषा का क्या संबंध होगा ।और यह भी कि सिंधी किसी एक राज्य की भाषा न होने की वजह से कैसी मुश्किल में आने वाली है ।
उसके बाद कीरत बाबानी सहित कुछ युवाओं की अगुवाई में सिंधी भाषा को संविधान के आठवें शेड्यूल में शामिल करने के प्रयास शुरू हुए, जिसके फलस्वरुप 1967 में सिंधी को आठवें शेड्यूल में शामिल किया गया।इस मुहिम में उनके साथ ऐ. जे .उत्तम और गोविंद माली भी जुड़े। ये तिकड़ी हमेशा साथ रही। अखिल भारत सिंधी बोली अंए साहित्य सभा के बैनर तले इन तीनों ने सिंधी भाषा के लिए बहुत काम किया। कीरत बाबानी इस सभा के लगभग 20 वर्षों तक अध्यक्ष बने रहे। ये तीनों एयर कंडीशंड कमरों या पहाड़ों पर बैठकर कविताएँ लिखने वाले साहित्यकार नहीं थे बल्कि आमजनों के बीच जमीन पर काम करने वाले संघर्षशील एक्टिविस्ट भी थे।इन लोगों ने न सिर्फ भाषा के लिए काम किया बल्कि सिंधियों के लिए एक अलग प्रदेश की मांग समेत तमाम मुद्दों पर आंदोलन किये । कीरत बाबानी जानते थे कि किसी एक लोकसभा या विधानसभा सीट पर निर्णायक संख्या में न होने की वजह से सिंधी अब 'पालिटिकल लेफ्ट ओवर' हैं इसलिये छोटा ही सही सिंध प्रांत होना चाहिए । उनका मानना था कि कच्छ ही वह धरती है जहाँ सिंधियों को अपना एक अलग प्रांत बनाए जाने की गुंजाइश हो सकती है। याद रहे आजादी के तुरंत बाद महाराजा कच्छ ने सिंधियों के लिए एक अलग शहर बसाने के लिए 15000 एकड़ जमीन दी थी। सिंधी नेता भाई प्रताप का ख्वाब था कि वहाँ सिंध बसे , परंतु वह पूरा न हो सका।
इस बीच सिंधी भाषा को किस लिपि में लिखा जाए, यह झगड़ा भी चलता रहा। कीरत बाबानी सिंधी की मूल लिपि जो अरबी जैसी है, के पक्ष में रहे। वे देवनागरी लिपि के खिलाफ थे।
कीरत बाबानी ताउम्र अपनी धरती सिंध से जुड़े रहे। वे कहते थे सियासत की बनाई सरहदें बदलती रहती हैं, परंतु जीने के तौर-तरीके , भाषा -संस्कृति सियासी सरहदों को नहीं मानते। वे सिंध के लोगों को अपना मानते थे और जब पाकिस्तान में जिए- सिंध मूवमेंट शुरू हुआ तो उन्होंने खुलकर उसका साथ दिया। जी.एम सैयद जो 'जिए सिंध' मूवमेंट के अगुवा थे, उनकी कई किताबें जो पाकिस्तान में नहीं छप सकतीं थी, उन्होंने हिंदुस्तान से छपवाकर भेजीं। जी.एम सैयद को भारत आमंत्रित करने और राजीव गाँधी से मिलवाने मे उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी । यहाँ तक कि कई लोग कहते थे कि कीरत बाबानी जी.एम सैयद के सचिव की तरह काम करते रहे। वे हमेशा एक बार फिर सिंध की धरती देखना चाहते थे पर पाकिस्तान की सरकार ने कभी उन्हें वीजा नहीं दिया। उनकी मौत के बाद उनकी अस्थियां जरूर सिंधु नदी में प्रवाहित की गई। 2015 मे उनकी मौत पर सिंध असेंबली ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
बतौर साहित्यकार उन्होंने 18 से अधिक किताबें लिखी हैं, जिनमें कहानी संग्रह, कविताएँ, आलोचना, सफरनामा और उनकी आत्मकथा कुछ बुधायुम , कुछ लिकायुम (कुछ बताया, कुछ छुपाया) भी शामिल है। उनकी किताब ‘धरती जो सड‘ (धरती की पुकार )पर उन्हें 2006 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
इसके अलावा उन्हें 1980 मे सोवियत लेण्ड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
7 मई 2015 को मुंबई में दुनिया को अलविदा कहने से पहले कीरत बाबानी ने एक भरी पूरी सार्थक जिदंगी जी ।
आजाद भारत के सिंधीयो की कहानी जब भी कही जायेगी वो कीरत बाबानी के जिक्र किये बगैर अधूरी होगी ...।

Tuesday, 11 April 2017



आजादी के गुमनाम सिपाही सिंधी ! 

... उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा...! ये भी नहीं, कि जिस सफर पर उन्हें भेजा जा रहा है, उसकी मंजिल कहाँ है। वे बस उठे, और चल दिये ताकि आपकी आजादी की लड़ाई का आखिरी पन्ना लिखा जा सकें। वे बस चल दिये, अपने खेत-मकान, जमीन-जायदाद अपने मंदिरों, पीरों-फकीरों, अपने गली चौबारों, अपनी नदियों, अपने सहराओं को छोड़कर। वे जानते थे कि ये एक मुश्किल सफर होने वाला है और सफर में वे बस उतना ही सामान अपने साथ रखना चाहते थे जितना जिंदा रहने के लिये जरूरी हो। अपनी किताबें अपने गीत, लोरियां, संगीत, बाजे सबकुछ जैसे एक ‘एक्स्ट्रा बैगेज‘ था इस सफर में। जिसकी कीमत चुकाने की हैसियत नहीं थी उनकी। 70 साल के इस सफर के दौरान लोगों ने इल्जाम लगाये। तंज कसे- क्या तुम्हारा कोई साहित्य है, क्या तुम्हारे पास कला है, नृत्य है ? किसी ने कहा- तुम सिंधी धनपशु हो। वे कुछ ना बोले। 5000 साल से ज्यादा पुरानी संस्कृति के ये वारिस कैसे समझातेे और कौन समझता कि 'मुअन जो दड़ो' की सभ्यता के इन बेटों के पास साहित्य, संगीत की कैसी समृद्ध विरासत है।

आजादी के सिपाहियों की शहादत की कहानियां इतिहास की किताबों में दर्ज हैं। वे हमारी आजादी की इमारत के कंगूरे हैं। पर विश्व के इस सबसे बड़े विस्थापन में जो 2 करोड़ लोग अपने घर से बेघर हुये उनकी शहादत का मोल इतिहास ने नहीं लगाया। वे बेभाव बिक गये। हुक्मरानों ने आजादी का जो फार्मूला बनाया था, उसमें ये बदनसीब लोग बस एक संख्या थे, जिनकी राय लेने की आवश्यकता नहीं थी। पाकिस्तान से भारत आने वालों में पंजाबी, बंगाली और सिंधियों की तादाद सबसे ज्यादा थी। पर पंजाबी और बंगालियों को भारत में अपना कहने को एक राज्य था,  उनकी भाषा बोलने वाले लोग थे। उनकी गर्भनाल पाकिस्तान की जमीन से कटी तो इन सूबों से जुड़ गई। वे भले ही भारत के किसी भी हिस्से में रहें, पर उन्हें अपनी मातृभूमि से जुड़ाव का सुख इन सूबों ने दिया। पर इस विस्थापन का शिकार हुये 12 लाख सिंधियों का मामला अलग था। यहां उनके पास अपना कहने को न कोई प्रान्त था न जमीन। वे अपना घर-बार छोड़कर एक ऐसे देश-गाँव में चले आये थे जहाँ की न उन्हें भाषा आती थी, न जीने के तौर-तरीके। वे सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो गये थे। यही वजह थी कि विभाजन के साहित्य में, फिल्मों में पंजाब और बंगाल के दर्द की कहानियां तो लिखी गईं पर सिंध इन कहानियों से बिलकुल गायब रहा। अधिकांश देशवासी आज तक नहीं जान पाये कि सिंध का विभाजन पंजाब और बंगाल के विभाजन से किस तरह अलग था और शायद इसीलिए वे सिंध का विभाजन पंजाब और बंगाल के विभाजन से किस तरह अलग था और शायद इसीलिए वे सिंधियों के दर्द को भी नहीं समझ पाये।

कहते हैं, नस्ल के बाद भाषा ही वह पहली वजह होती है जो किसी इंसान को दूसरे से अलग करती है। ये देश उनके लिए अजनबी था। अब उन्हें इसी अजनबी देश में, एक अजनबी भाषा में उन लोगों से व्याापार करना था जो उन्हें शरणार्थी कहते थे। मुंबई में कल्याण के जिन कैंपों में सिंधियों को शरणार्थी कहकर बसाया गया, वे दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इटैलियन कैदियों के लिए बनाई गईं काल-कोठरियाँ थीं। इन बैरक्स में न तो पक्की छतें थीं, न हवा आने-जाने का कोई इंतजाम और न ही कोई ड्रेनेज व्यवस्था। सिंध से निकले कई 'धनकुबेरों' ने इन कोठरियों में बरसों तक नारकीय जीवन जिया। कई आज भी इन्हीं बैरकों में रह रहे हैं। देशभर में फैली इस तरह की टीन की कोठरियों के लिए उन्हें एक क्लेम फार्म भरना होता था, जिसमें उन्हें उन हवेलियों के ब्योरे देने होते थे जो वे सिंध में छोड़ आये थे। ऐसे ही एक क्लेम फार्म पर सिंधीे कवि लेखराज अजीज ने लिखा, ''पूरी सिंध मेरी जायदाद है। मैं सिंध पर क्लेम करता हूँ।''
शरणार्थी पुकारे जाने से पहले यह सोचा जाना चाहिए था कि सिंधी किसी दूसरे देश से नहीं आये थे। वे अपने ही देश अविभाजित भारत से विभाजित भारत में आये थे। वे सिंध से कुटुम्ब-कबीलों और एक जिन्दा सांस्कृतिक समूह की तरह निकले थे, पर अचानक उन्होंने पाया कि आजादी के फार्मूले को इति सिद्धम तक पहुँचाने के लिए उन्हें बिखर जाना होगा। कवि पहलाज ने लिखा -"सिंध के गले का हार टूट गया है और मोती टूटकर बिखर गये हैं।" यह सच है कि विभाजन का आधार धर्म था और इस फामूर्ले के तहत हिंदू सिंधियों को वहाँ से आना ही था। पर यह ऑपरेशन किसी सर्जन के चाकू से नहीं, कसाई के भोथरे हथियार से किया गया, जिसने सिंधी अस्मिता पर ऐसे गहरे घाव बनाये कि खून आज तक रिसता है। सिंधी विद्वानों ने इसे सिंधियों की ऐतिहासिक मृत्यु की संज्ञा दी। वे अब पाॅलिटिकिल लेफ्ट-ओवर थे क्योंकि किसी एक विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में वे निर्णायक वोट बैंक नहीं थे।  

सिंधियों की मौजूदा पीढ़ी सवाल करती है कि आजादी के समय सिंधी नेताओं ने अलग राज्य क्यों नहीं मांगा। विभाजन के समय यदि सिंधी मांग करते तो शायद सिंध के हिन्दू-बहुल थारपरकर जिले के साथ जैसलमेर और कच्छ का कुछ हिस्सा मिलाकर एक छोटा-सा प्रान्त बनाया जा सकता था। पर इस राजनीतिक भूल के लिए नेताओं को दोषी ठहराने से पहले हमें उस दौर के सिंध के सामाजिक हालात को समझना होगा। विभाजन के दौरान जब पंजाब और बंगाल में खूनी सांप्रदायिक दंगे चल रहे थे, सिंध प्रान्त आमतौर पर शांत था। हिन्दू-मुस्लिम संबंध इतने अच्छे थे कि 1947 में विस्थापन बहुत कम हुआ। हिन्दू सिंधियों को उनके मुसलमान सिंधी भाई यह समझाने में कामयाब रहे कि ये झगडे बस कुछ दिनों की बात है और किसी हिन्दू भाई को यहां से जाने की जरूरत नहीं है। आम सिंधी आजादी के लगभग छह महीने बाद तक भी इस हिन्दू-मुस्लिम अलग देश के सिद्धांत को अव्यावहारिक मानता था।1948 में जब कराची मे दंगा हुआ उसके बाद ही हिन्दू सिंधियों को यह ख्याल आया कि उन्हें यहाँ से जाना होगा। तब तक भारत के उत्तरप्रदेश सहित अन्य इलाकों से मुसलमान सिंध पंहुचने लगे थे, जिन्होंने सिंधियों को विभाजन के बारे में बताया। तब भी कई सिंधी तो पड़ोसियों से यह कहकर आये कि हम जल्द ही वापस आ जायेंगे। 

गौर करने वाली बात यह भी है कि विस्थापन के दौरान दूसरी मुश्किलें जरूर हुईं पर सिंध में कोई हत्या, बलात्कार या लूट जैसी घटनाएं नहीं के बराबर हुईं। मुहब्बत और भाईचारे वाले सूफियाना मिजाज वाले हिन्दू- मुस्लिम सिंधियों को बंटवारा भी अलग नहीं कर सका। हिन्दू सिंधियों में अपना वतन छोड़ने का जितना अफसोस था, उतना ही दुख वहां के मुसलमान सिंधियों को भी था। यह रिश्ता विभाजन के बाद भी बना रहा। बेशक अब वे अलग और 'दुश्मन' देश के वासी थे, पर उनकी ज़बान, उनके गीत, उनकी लोरियां एक ही थीं। यही वजह थी कि 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय पाकिस्तान में मशहूर शायर शेख अयाज ने अपने हिन्दू दोस्त और तब भारत आ चुके सिंधी कवि नारायण श्याम को संबोधित कर एक विवादास्पद नज्म लिखी-  
यह संग्राम...! सामने है नारायण श्याम !
इस पर कैसे बंदूक उठाऊँ! इस पर गोली कैसे चलाऊँ...!
ये एक उलझा हुआ रिश्ता था जिसे बनाये रखने की कीमत शेख अयाज को जेल जाकर चुकानी पड़ी थी।

सिंध प्रांत न बनाने की ऐतिहासिक भूल को 1956 में भी ठीक किया जा सकता था, जब राज्यों का पुनर्गठन  हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि प्रान्तों का गठन एक प्रशासनिक इकाई की तरह हो, न की भाषाई आधार पर, लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत राज्यों की सरहदें भाषाओँ कि बिना पर ही खींचीं। इसने सिंधी भाषा के लिए हमेशा के लिए एक मुश्किल खड़ी कर दी। जहाँ दूसरी भाषाओं को राज्य का सहारा मिला, वही संस्कृत और उर्दू के अलावा सिंधी तीसरी ऐसी भाषा बनी जो संविधान के आठवें शेड्यूल में तो थी पर उसका कोई राज्य नहीं था। उस वक्त देशभर में बिखरे सिंधियों के लिए अपने राज्य के लिये आंदोलन करने से ज्यादा जरूरी था जिन्दा बचे रहना। इसलिये छिटपुट मांगें उठती रहीं, पर कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। अपने लिए अलग राज्य की मांग अब सिंधी नेता अक्सर उठाते हैं पर किसी राज्य से जमीन लेकर नया सिंध बनाना एक ऐसा बवाल है, जिसमें कई शान्तिप्रिय सूफीवादी सिंधी नहीं पड़ना चाहते। इसलिए कुछ सिंधी नेता 'लैंडलेस स्टेट' की माँग करते हैं। उनका तर्क है कि जब भारत सरकार ‘तिब्बत गवर्नमेंट इन एक्साइल’ की अनुमति दे सकती है तो सिंधी तो भारतमाता के सपूत हैं। फार्मूला कोई भी हो, अलग सिंध प्रान्त न सिर्फ सिंधियों के लिये बल्कि सभी देशवासियों के लिए गर्व का विषय होगा, क्योंकि सिंध के बगैर हमारा राष्ट्रगान अधूरा है। जैसा कि बिहार के हेमंतसिंह अपनी किताब 'आओ हिंद में सिंध बनायें' में लिखते हैं, ''हमें कच्छ के निकट समुद्र से कुछ जमीन रिक्लेम कर सिंध बनाना चाहिए जो न सिर्फ सिंधी संस्कृति का केन्द्र हो, बल्कि एक बंदरगाह और बड़ा व्यापार केन्द्र भी हो। यह हमारे राष्ट्रगान में आ रहे सिंध शब्द का सम्मान होगा और राष्ट्रगान पूरा होगा।'' सिंधियों के राजनीतिक पुनर्स्थापन के लिये एक और फार्मूला जो सिंधी काउन्सिल ऑफ इण्डिया ने अपनी माँगों में रखा, वह है संविधान संशोधन के जरिये लोकसभा में 14, राज्यसभा में 7 और अलग-अलग विधानसभाओं में 5 से लगाकर 15 सीटों तक सिंधियों के लिए आरक्षित करना ताकि राज्य न होने की भरपाई की जा सके।


राज्य न होने का सबसे बड़ा नुकसान सिंधी भाषा संस्कृति ने भुगता है। फारसी और अंग्रेजी ने यह साबित किया है कि भाषा के विकास में राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। हालांकि भारत सरकार ने 1968 में सिंधी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर इस नुकसान की कुछ भरपाई की है, पर यह काफी नहीं है। सिंधी इतिहासकार मोहन गेहानी कहते हैं कि सरकार कम से कम इतना तो करती कि भारत भवन की तर्ज पर एक बड़ा सांस्कृतिक केन्द्र बनवा देती, जहाँ सिंधियों की 5000 साल पुरानी संस्कृति और कलाओं के संवर्धन का काम हो सकता। या फिर सिंधियों को भाषाई अल्पसंख्यक मानते हुए सरकार उनके हितों की रक्षा कर सकती थी, परन्तु राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में ऐसा हो न सका जबकि हमारा संविधान भाषाई और धार्मिक  अल्पसंख्यकों में कोई भेदभाव नहीं करता। यहां तक कि दूरदर्शन पर अलग सिंधी चैनल की मांग को भी सरकार ने नहीं माना है।

सिंधु नदी जिसके नाम पर हिन्दू और हिन्दुस्तान का नाम पड़ा, के वारिसों की भाषा और संस्कृति आज खतरे में है। सिंधी भाषा के खत्म हो जाने का अंदेशा जताते सिंधी कवि नारायण श्याम लिखते हैं ''अल्लाह यूँ न हो कि हम किताबों में पढ़ें, कि थी एक सिंध और सिंध वालों की बोली...।'' सिंधी साहित्यकार स्व. कृष्ण खटवानी कहते थे, ''मैं कैसे कोई गीत लिखूँ। मेरी कलम सिंधु नदी के किनारों की ठण्डी हवाओं में ही चलती है। सिंध के बगैर मैं सिंधी में कैसे लिख सकता हूँ।''

'ग्लोबल विलेज' बनती जा रही इस दुनिया में भाषा और संस्कृति का रोना शायद बेवजह का स्यापा लग सकता है। पर भाषाएं अकेले नहीं मरतीं, उनके साथ सदियों से इकठ्ठा किया पारम्परिक लोक-ज्ञान भी मर जाता है। मुहावरे अकेले नहीं मरते- उनके साथ उस समाज के जीवन-मूल्य और जीने का फलसफा भी चला जाता है। जब कोई समाज अपनी लोरियाँ भूल जाता है तो क्या बच्चे सचमुच उसी तरह से बड़े होते हैं जैसे वे होते आये थे। एक भाषा के मर जाने से सिर्फ उस भाषा को बोलने वाले समाज का नुकसान नहीं होता, बल्कि पूरी दुनिया से जीने का ढंग हमेशा के लिये कुछ कम हो जाता है। आज सिंधी संस्कृति के इस प्रतीक-पर्व पर सिंधी भाषा संस्कृति को बचाये रखने की जरूरत पर बात करने का मौका भी है और दस्तूर भी। सिंधियों की कुर्बानी की खातिर न सही तो इस रंग-बिरंगी दुनिया को बेरंग होने से बचाने के लिये ही सही।

आज चेटीचण्ड पर सिंधी अपने भगवान दरियाशाह की पूजा करेंगे। उसी ‘दरियाशाह‘  की पूजा, जिसके भरोसे उनके पूर्वज अपनी नावें दरिया की उफनती लहरों में डालकर व्यापार करने दूर देश जाते थे। उसी दरियाशाह की पूजा जिसके भरोसे वे एक दिन अचानक अपना घर छोड़कर एक अन्जान देश, धरती पर बसने चले आये थे। आज आप जब दफ्तर-दुकान से घर लौट रहे होंगे तो शायद चेटीचण्ड के जुलूस की वजह से आपको घर पहुँचने में थोड़ी देर हो जाये। आपका झुंझलाना वाजिब है। घर पहुँचने की जल्दी सबको होती है, पर उस घड़ी एक पल आप उन लाखों सिंधियों के बारे में जरूर सोचियेगा, जो 70 साल पहले अपने घरों से निकले थे और फिर कभी घर वापस नहीं गये ताकि आप आज देर से ही सही पर आजादी से अपने घर जा सकें।

संजय वर्मा

imsanjayverma@yahoo.co.in

This is Hemant Singh from Bihar. He has written a book 'Aao Hind me Sindh Banayen' .
I met him today in silver jubilee function of Indian Institute of Sindhology at Gandhi Dham (Gujarat).
Mr . Hemant says we should have a seperate sindh state because 'Sindh' word comes in our National Anthem. He has his ideas of where and how a sindh state can be formed...
Since sindhis did not get any land or state after partition where in sindhi language and culture can be preserved, demand of a state (even a lanless one ) keep arising from time to time from sindhis, but it is intresting to hear it from a non sindhi. Thank you very much Mr. Hemant Singh...and best of luck...

Monday, 10 April 2017

Bhorna


कहीं हम भूल न जाएं 

भोरना
हम सिंधी इसे ' भोरना ' कहते हैं। थोड़े कड़क पराठे को फोल्ड कर खास तरीके से क्रश किया जाता है, जिसके उसका स्वाद और बढ़ जाता है (हां! सचमुच कभी ट्राई कीजिए। बस पराठे बेलते वक्त थोड़ा घी भी डालिए) पर मैं रेसिपी बताने के लिए यह पोस्ट नहीं लिख रहा।
दरअसल आज बहुत दिनों बाद यह 'भोरना' शब्द याद आया। इन दिनों हम सिंधी जो कुछ टूटी-फूटी सिंधी भाषा अपने घरों में बचा पाए हैं, उसमें व्याकरण तो सिंधी की है, पर कई शब्द, विशेषण, उपमाएं, मुहावरे गायब हो गये हैं। 'भोरना' भी उनमें से एक क्रिया है। पर सिंधी भाषा से यह शब्द ही नहीं गया, सिंधी घरों में फुलकों का भोरना भी बंद हो गया है। मेरे बच्चे अपनी मां से अब फुलके को भोरने के लिए नहीं कहते, जैसे हम भाई-बहन अपनी मां से कहते थे। तो क्या हमारे रसोईघरों में भोरना बंद हुआ इसलिए यह शब्द भाषा ने त्याग दिया ? पर मामला उल्टा भी तो हो सकता है। अगर किसी काम के लिए हमारी दैनंदिन की भाषा में शब्द ना हो तो वह काम ही हम करना बंद कर दें। भोरना के लिए हिंदी में कोई शब्द नहीं है। अंग्रेजी का crush हथौड़े मारने जैसी किसी क्रिया का पता देता है, जबकि भोरने के लिए सिंधी महिलाएं फुलके को एक हाथ से सहारा देकर खड़ा करती हैं फिर इसे दूसरे हाथ की हथेली से थप्पी देती हैं। तो यदि किसी समाज की भाषा में भोरना शब्द ना हो तो वह इस क्रिया को कैसे कम्यूनिकेट करेगा, तब यह पाक विधि हमेशा से उसके खान-पान से खत्म हो जाएगी और एक खास किस्म के स्वाद से एक पूरा समाज हमेशा के लिए वंचित हो जाएगा।
भाषा के मर जाने से जो नुकसान होते हैं, यह उसकी एक सादा मिसाल है। थोड़ा गहराई में जाएं तो पता चलता है इंसान के जज़्बात और जीवन-मूल्यों पर भी भाषा गहरा असर डालती है। हमारी सिंधी में एक शब्द है- 'सिक्क' ! इसे ठीक से उच्चारित करने के लिए आपको इसके आगे एक अदृश्य 'अ' का भी उच्चारण करना होगा, वरना अंग्रेजी के सिक यानी कि बीमार का उच्चारण होगा। (सिंधी के शब्द स्वरांत होते हैं, शब्द के अंत में अधिकांशतः अ या उ की ध्वनि होती है, लिखते वक्त इस स्वर को लिखा नहीं जाता पर बोलते वक्त उच्चारित किया जाता है। यह अंग्रेजी के 'साइलेंट लेटर' से ठीक उल्टा मामला है) तो यह सिंधी का जो 'सिक्क' है, उसका अर्थ है- किसी प्रियजन पर बहुत प्यार आकर उससे मिलने की इच्छा पैदा होना। दूसरी भाषाओं मे प्यार, स्नेह, लव-मोहब्बत, याद आना, इनमें से कोई भी शब्द इस भावना को ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर सकता। हम सिंधी किसी दोस्त रिश्तेदार से जब यूं ही मिलने जाते हैं तो जाकर कहते हैं- "मुखे तुंजी सिक्क पई लगे!" अब जब हमारी भाषा में यह सिक्क शब्द मर जाएगा, तो हो सकता है हमारे दिलों में एक खास किस्म के जज्बात पैदा होना भी बंद हो जाएं जिन्हें जतलाने के लिए हम इस शब्द का इस्तेमाल करते थे। हो सकता है तब हम दूसरों से बेवजह मिलने ही न जायें।
भाषाएं अकेले नहीं मरतीं उनके साथ सदियों, पीढ़ियों से इकट्टा किया पारंपरिक ज्ञान और जीने का फ़लसफ़ा भी मर जाता है। भाषा सिर्फ बातचीत के माध्यम भर नहीं है, वह पीढ़ियों को किसी लंबी चेन की कड़ियों की तरह बांधती है और जीने के तौर-तरीके एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाती है। यह बात सिंधियों जैसे किसी विस्थापित समाज के लिए और भी महत्वपूर्ण है। क्योंकि जब कोई समाज विस्थापित होता है तो भाषा किसी जिम्मेदार गृह-स्वामिनी की तरह उसके भाव-संसार के खजाने की चाबी संभालकर रखती है और एक के बाद दूसरी पीढ़ी को सौंपती है।
ग्लोबल विलेज बनती इस दुनिया में भाषाओं का मरना तय है। मेरे फुलके को 'भोरने' न भोरने से पता नहीं हमारी सिंधी के बचने का क्या संबंध है, पर मैं सोच रहा हूं अपने बच्चों को भोरना शब्द और क्रिया दोनों सिखा ही दूं, क्योंकि मैंने अपनी मां से इसे सीखा है और यह कर्ज मुझे अपने बच्चों पर उतारना ही चाहिए।

Narayn Shyam

महान सिंधी कवि
नारायण श्याम

आज 22 जुलाई को महान सिंधी कवि नारायण श्याम का जन्म दिवस है।
बीसवीं सदी के अज़ीम सिंधी शायर सदा-हयात नारायण श्यामको याद करना और उन पर बात करना दो वजहों से जरूरी है। पहला तो य कि वे जिस सिंधी बोली के शायर हैं,  वह आज अपने वजूद को बचाने के लिये जद्दोजहद कर रही है,  क्योंकि वे खुुद ही लिख गये हैं कि-
ऐसा न हो कि कल, ये किताबों में हम पढ़ें
थी एक सिंध, एक जबां सिंध वालों की भी थी!
और दूसरा  कि नारायण श्याम को समझना सिंधी कविता के विकास की यात्रा, और उस पर आजादी के बाद हुये बँटवारे और सिंधियों के विस्थापन के असर कीे पड़ताल करना भी है।
नारायण श्याम का जन्म 22 जुलाई 1922 को नौशहर सिंध पाकिस्तान (तब अविभाजित भारत) में हुआ था। विभाजन के बाद नारायण श्याम भारत आकर दिल्ली में बस गए, जहां उन्होंने पोस्ट एंड टेलीग्राफ विभाग के अकाउंट सेक्शन में बतौर क्लर्क काम किया। अपने काम और एक बड़े परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए उन्होंने 1953 से 1986 तक 11 किताबें लिखीं।
उन्हें 1970 में उनकी किताब 'वारी अ भरियो पलांद' पर 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से नवाजा गया। 
उन्होंने 11 वर्षों के अथक परिश्रम से 'रूप माया'  नाम से एक महान खंड काव्य की रचना की। यह सानेट्स में रचित है जो काव्य रचना की बहुत मुश्किल विधा है ।
नारायण श्याम की शायरी की शुरूआत कराची के काॅलेज के दिनों से हुई। कराची के डी.जे. सिंध काॅलेज के शिवकुंज होस्टल में उनके साथ थे सिंधी के महान शायर 'शेख अयाज' जो ता जिंदगी उनके गहरे दोस्त रहे। शिवकुंज होस्टल तमाम छोटे-बड़े सिंधी शायरों का अड्डा था। यहाँ 'परसराम जिया'  जो नारायण श्याम के गुरू रहे, खीयलदास फानी और गोविंद माली जैसे स्थापित सिंधी शायरों की सोहबत मे युवक नारायण श्याम के भीतर के शायरी के पौधे को फलने-फूलने के लिये भरपूर खाद पानी मिला। यह 1940  के आसपास का वक्त था। ये दौर सिंधी में आधुनिक कविता का दौर था। पर सिंधी कविता इस मुकाम पर पहुँचने से पहले दो अहम पड़ाव पार कर के आई थी, जिसे समझना जरूरी है।
अंग्रेजों ने सिंध पर 1843 में कब्जा किया और 1853 में उन्होंने फारसी के जगह अरबी सिंधी को राजकाज की भाषा बना दिया। फारसी जो पिछले 600 सालों से सिंध की राजकाज की भाषा रही थी पर सिंधी अदब में उसकी जगह न थी। तब सिंधी कविता दोहों, सोरन, श्लोक, काफी जैसे पुराने सिंधी फार्म्स में ही कही जाती थी और अधिकांशतः सूफी रंग में रंगी भक्ति कविता थी। अंग्रेजों के फारसी हटाने के फैसले का सिंधी अदीबों पर अजीब और उल्टा असर हुआ। अचानक सभी ने फारसी फार्म जैसे गज़ल और रूबाई में कविता कहनी शुरू कर दी। सिंधी गज़लों का पहला दीवान शायर गुल मोहम्मद ने 1855 में लिखा। फिर तो लगभग सारा सिंधी साहित्य गज़ल और रुबाइयों में लिखा जाने लगा। इस दौर मेें सारा जोर गज़ल का मीटर निभाने पर था। खयाल को लेकर ज्यादा फिक्र न थी। शायरी के मजमून फारसी गज़ल की तरह, शराब-साकी, शम्मा-परवाना ही थे। यह दौर गुल स्कूल ऑफ सिंधी शायरीके नाम से जाना जाता है। यह दौर लगभग 50-60 साल तक चला।
फिर बीसवीं सदी की शुरूआत में शायर हैदरबख्श और आधुनिक सिंधी कविता के जनक किशनचंद खत्री बेवसने सिंधी कविता को शराब साकी से निकालकर आम लोगों की जिंदगी की मुश्किलों से जोड़ा।
'बेवस' ने वह जमीन तैयार की, जिस पर नारायण श्याम ने भारत में और शेख अयाज ने पाकिस्तान में आधुनिक सिंधी कविता की इमारत खड़ी की। नारायण श्याम पर बेवस का असर तो है पर वे उनसे और अपने समकालीन शायरों से आगे भी निकले क्योंकि वे न सिर्फ सिंधी कविता के पुराने रंग जैसे सूफी भक्ति काव्य और गुल स्कूल आफ सिंधी गज़ल का असर अपने साथ लेकर चले बल्कि आजादी के बाद भारत आने के बाद हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य के संस्कार भी उन्होंने खुले दिल दिमाग से अपनाये। वे अपने तरह से एक अनोखे सिंधी कवि हैं जिन्होंने अपनी कविता में हिंदी के शब्दों का इतनी खूबसूरती से प्रयोग किया है कि वे सिंधी के ही लगते हैं।
हिंदी कविता का एक असर यह भी है कि उनकी कविताओं के जैसा रोमांटिसिज्म सिंधी शायरी में कम ही देखने को मिलता है। एक नमूना देखिये उनकी कविता 'रूप- माया' जो मेनका के महर्षि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के प्रसंग पर श्रृंगार रस की कविता है-
बनती जैसे-जैसे कली फूल जिस तरह 
जज्बात उस तरह से उभरते हैं गीत के
विश्वामित्र के जीवन के सौन्दर्य को न देख पाने का अफसोस नारायाण श्याम की कलम से देखिये
फूल न देखे , बस नजरें थीं काँटों पर 
चाँद के दागों पर रहती थी, मेरी नजर 
हाय मेरी आँखो पे था किसका असर 
इस दुनिया को समझा मैने दुःख का घर।
नारायाण श्याम के रोमांटिसिज्म से कुदरत के नज़ारे देखिये
दिन भर तो तपती रही 
सिंधु अब कपड़े फैलाये
देकर सितारों को चुंबन
अलिंगन में ले रात ले आई
सिंधु नदी, सिंधी शायरी का प्रिय मजमून रही है, पर आम सिंधी कविता में वह पूजनीय माँ स्वरूप या जीवनदायिनी के रूप में  आती है।
यह नारायाण श्याम का हुनर और सलाहियत है कि उनकी सिंधु सितारों को चुंबन देकर रात को गले लगाती है।
ऐसा ही एक बेमिसाल प्रयोग उन्होंने सिंधु की धरती को लेकर किया है, जिसमें अपनी मातृभूमि को माँ या पिता के रूप में नहीं बल्कि नवब्याहता के रूप में याद किया है।
सिंध का नक्शा देख के अक्सर, लिखता हूं मैं मन का खयाल 
बैठे-बैठे जैसे वर को जैसे आ जाये दुल्हन का खयाल
आजादी के बाद सिंध से भारत आये लाखों सिंधियों की तरह नारायाण श्याम भी सिंध की धरती और सिंधु नदी को शिद्दत से याद करते थे ।
भारत की धरती को सम्मान देते हुये सिंधु को याद करने का उनका अनोखा अंदाज देखिये-
गंगा-जमना अमृत अमृत
पर सिंधु तो है माँ का दूध
नारायण श्याम पर कोई बात पाकिस्तानी सिंधी शायर शेख अयाज़ के जिक्र के बगैर पूरी नहीं हो सकती। शेख अयाज़ और नारायण श्याम की दोस्ती दो अदीबों की दोस्ती तो है ही, पर इस रिश्ते में उस दौर के पाकिस्तान के सिंधियों और भारत के हिन्दु सिंधियों के रिश्ते की खुशबू भी है। जब 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो शेख अयाज़ ने नारायण श्याम को संबोधित कर अपनी वह विवादास्पद नज़्म लिखी जिसके लिये उन्हें जेल जाना पड़ा
यह संग्राम!
सामने है नारायण श्याम!
कैसे मैं बंदूक उठाऊँ 
इस पर कैसे गोली चलाऊँ
जज्बा इक और तन इक जैसे
बोली एक वचन इक जैसे 
वो कविता की काक का राजा
पर मेरे रंग रंतौल भी वैसे
इल्म भी एक और यार एक जैसे 
सज धज दिल के तार एक जैसे
कैसे मैं बंदूक उठाऊँ 
इस पर कैसे गोली चलाऊँ !
कहते हैं जब नारायाण श्याम की मौत की खबर शेख अयाज़ को मिली तो वे तीन दिन बेसुध रहे। इसी दीवानगी के आलम में कभी अचानक रात को उन्हें होश आता तो उठकर नारायण श्याम पर शेर लिखने लग जाते। बाद में उनके ये शेर सुर नारायाण श्याम नाम से एक संग्रह के रूप में प्रकाशित हुए।
गंगा तुम्हारी राख बहा ले गई मगर 
सिंधु ने इंतज़ार में बांहें फैलायीं बहुत
अभी सब कुछ साँवरे अधूरा है
दिल नहीं करता कि अभी सिधारें दुनिया से
पर दिल के चाहने से क्या होता है। कई पूरे अधूरे काम छोड़कर 10 जनवरी 1990  को यह महान कवि हमसे बिछड़ गया। अपनी मौत के बारे में उन्होंने लिखा था-
मैं तो इक आवाज फिजा में
दूर कहीं गुम़ हो जाऊँगा
देखना मुझको आसमान में
तुमको नजर मैं फिर आऊंगा 
जब तक सिंधी बोली है नारायण श्याम सिंधी सोच और कविता में जिंदा रहेंगे। उनकी ही एक कविता है -
जाकर मैं पहुँचा हूं कहां पर
क्या करना है तुम्हे जानकर
हाँ ये पूछो मुझसे सफर में
गुजरा हूँ मैं किस रहगुजर में
सिंध को कोई नहीं छीन सकता सिंधियों से,
सिंधु सिंधियों में बसती है,
सिंध यहाँ भी है सिंध वहाँ भी  
-संजय वर्मा