Tuesday, 11 April 2017



आजादी के गुमनाम सिपाही सिंधी ! 

... उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा...! ये भी नहीं, कि जिस सफर पर उन्हें भेजा जा रहा है, उसकी मंजिल कहाँ है। वे बस उठे, और चल दिये ताकि आपकी आजादी की लड़ाई का आखिरी पन्ना लिखा जा सकें। वे बस चल दिये, अपने खेत-मकान, जमीन-जायदाद अपने मंदिरों, पीरों-फकीरों, अपने गली चौबारों, अपनी नदियों, अपने सहराओं को छोड़कर। वे जानते थे कि ये एक मुश्किल सफर होने वाला है और सफर में वे बस उतना ही सामान अपने साथ रखना चाहते थे जितना जिंदा रहने के लिये जरूरी हो। अपनी किताबें अपने गीत, लोरियां, संगीत, बाजे सबकुछ जैसे एक ‘एक्स्ट्रा बैगेज‘ था इस सफर में। जिसकी कीमत चुकाने की हैसियत नहीं थी उनकी। 70 साल के इस सफर के दौरान लोगों ने इल्जाम लगाये। तंज कसे- क्या तुम्हारा कोई साहित्य है, क्या तुम्हारे पास कला है, नृत्य है ? किसी ने कहा- तुम सिंधी धनपशु हो। वे कुछ ना बोले। 5000 साल से ज्यादा पुरानी संस्कृति के ये वारिस कैसे समझातेे और कौन समझता कि 'मुअन जो दड़ो' की सभ्यता के इन बेटों के पास साहित्य, संगीत की कैसी समृद्ध विरासत है।

आजादी के सिपाहियों की शहादत की कहानियां इतिहास की किताबों में दर्ज हैं। वे हमारी आजादी की इमारत के कंगूरे हैं। पर विश्व के इस सबसे बड़े विस्थापन में जो 2 करोड़ लोग अपने घर से बेघर हुये उनकी शहादत का मोल इतिहास ने नहीं लगाया। वे बेभाव बिक गये। हुक्मरानों ने आजादी का जो फार्मूला बनाया था, उसमें ये बदनसीब लोग बस एक संख्या थे, जिनकी राय लेने की आवश्यकता नहीं थी। पाकिस्तान से भारत आने वालों में पंजाबी, बंगाली और सिंधियों की तादाद सबसे ज्यादा थी। पर पंजाबी और बंगालियों को भारत में अपना कहने को एक राज्य था,  उनकी भाषा बोलने वाले लोग थे। उनकी गर्भनाल पाकिस्तान की जमीन से कटी तो इन सूबों से जुड़ गई। वे भले ही भारत के किसी भी हिस्से में रहें, पर उन्हें अपनी मातृभूमि से जुड़ाव का सुख इन सूबों ने दिया। पर इस विस्थापन का शिकार हुये 12 लाख सिंधियों का मामला अलग था। यहां उनके पास अपना कहने को न कोई प्रान्त था न जमीन। वे अपना घर-बार छोड़कर एक ऐसे देश-गाँव में चले आये थे जहाँ की न उन्हें भाषा आती थी, न जीने के तौर-तरीके। वे सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो गये थे। यही वजह थी कि विभाजन के साहित्य में, फिल्मों में पंजाब और बंगाल के दर्द की कहानियां तो लिखी गईं पर सिंध इन कहानियों से बिलकुल गायब रहा। अधिकांश देशवासी आज तक नहीं जान पाये कि सिंध का विभाजन पंजाब और बंगाल के विभाजन से किस तरह अलग था और शायद इसीलिए वे सिंध का विभाजन पंजाब और बंगाल के विभाजन से किस तरह अलग था और शायद इसीलिए वे सिंधियों के दर्द को भी नहीं समझ पाये।

कहते हैं, नस्ल के बाद भाषा ही वह पहली वजह होती है जो किसी इंसान को दूसरे से अलग करती है। ये देश उनके लिए अजनबी था। अब उन्हें इसी अजनबी देश में, एक अजनबी भाषा में उन लोगों से व्याापार करना था जो उन्हें शरणार्थी कहते थे। मुंबई में कल्याण के जिन कैंपों में सिंधियों को शरणार्थी कहकर बसाया गया, वे दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इटैलियन कैदियों के लिए बनाई गईं काल-कोठरियाँ थीं। इन बैरक्स में न तो पक्की छतें थीं, न हवा आने-जाने का कोई इंतजाम और न ही कोई ड्रेनेज व्यवस्था। सिंध से निकले कई 'धनकुबेरों' ने इन कोठरियों में बरसों तक नारकीय जीवन जिया। कई आज भी इन्हीं बैरकों में रह रहे हैं। देशभर में फैली इस तरह की टीन की कोठरियों के लिए उन्हें एक क्लेम फार्म भरना होता था, जिसमें उन्हें उन हवेलियों के ब्योरे देने होते थे जो वे सिंध में छोड़ आये थे। ऐसे ही एक क्लेम फार्म पर सिंधीे कवि लेखराज अजीज ने लिखा, ''पूरी सिंध मेरी जायदाद है। मैं सिंध पर क्लेम करता हूँ।''
शरणार्थी पुकारे जाने से पहले यह सोचा जाना चाहिए था कि सिंधी किसी दूसरे देश से नहीं आये थे। वे अपने ही देश अविभाजित भारत से विभाजित भारत में आये थे। वे सिंध से कुटुम्ब-कबीलों और एक जिन्दा सांस्कृतिक समूह की तरह निकले थे, पर अचानक उन्होंने पाया कि आजादी के फार्मूले को इति सिद्धम तक पहुँचाने के लिए उन्हें बिखर जाना होगा। कवि पहलाज ने लिखा -"सिंध के गले का हार टूट गया है और मोती टूटकर बिखर गये हैं।" यह सच है कि विभाजन का आधार धर्म था और इस फामूर्ले के तहत हिंदू सिंधियों को वहाँ से आना ही था। पर यह ऑपरेशन किसी सर्जन के चाकू से नहीं, कसाई के भोथरे हथियार से किया गया, जिसने सिंधी अस्मिता पर ऐसे गहरे घाव बनाये कि खून आज तक रिसता है। सिंधी विद्वानों ने इसे सिंधियों की ऐतिहासिक मृत्यु की संज्ञा दी। वे अब पाॅलिटिकिल लेफ्ट-ओवर थे क्योंकि किसी एक विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में वे निर्णायक वोट बैंक नहीं थे।  

सिंधियों की मौजूदा पीढ़ी सवाल करती है कि आजादी के समय सिंधी नेताओं ने अलग राज्य क्यों नहीं मांगा। विभाजन के समय यदि सिंधी मांग करते तो शायद सिंध के हिन्दू-बहुल थारपरकर जिले के साथ जैसलमेर और कच्छ का कुछ हिस्सा मिलाकर एक छोटा-सा प्रान्त बनाया जा सकता था। पर इस राजनीतिक भूल के लिए नेताओं को दोषी ठहराने से पहले हमें उस दौर के सिंध के सामाजिक हालात को समझना होगा। विभाजन के दौरान जब पंजाब और बंगाल में खूनी सांप्रदायिक दंगे चल रहे थे, सिंध प्रान्त आमतौर पर शांत था। हिन्दू-मुस्लिम संबंध इतने अच्छे थे कि 1947 में विस्थापन बहुत कम हुआ। हिन्दू सिंधियों को उनके मुसलमान सिंधी भाई यह समझाने में कामयाब रहे कि ये झगडे बस कुछ दिनों की बात है और किसी हिन्दू भाई को यहां से जाने की जरूरत नहीं है। आम सिंधी आजादी के लगभग छह महीने बाद तक भी इस हिन्दू-मुस्लिम अलग देश के सिद्धांत को अव्यावहारिक मानता था।1948 में जब कराची मे दंगा हुआ उसके बाद ही हिन्दू सिंधियों को यह ख्याल आया कि उन्हें यहाँ से जाना होगा। तब तक भारत के उत्तरप्रदेश सहित अन्य इलाकों से मुसलमान सिंध पंहुचने लगे थे, जिन्होंने सिंधियों को विभाजन के बारे में बताया। तब भी कई सिंधी तो पड़ोसियों से यह कहकर आये कि हम जल्द ही वापस आ जायेंगे। 

गौर करने वाली बात यह भी है कि विस्थापन के दौरान दूसरी मुश्किलें जरूर हुईं पर सिंध में कोई हत्या, बलात्कार या लूट जैसी घटनाएं नहीं के बराबर हुईं। मुहब्बत और भाईचारे वाले सूफियाना मिजाज वाले हिन्दू- मुस्लिम सिंधियों को बंटवारा भी अलग नहीं कर सका। हिन्दू सिंधियों में अपना वतन छोड़ने का जितना अफसोस था, उतना ही दुख वहां के मुसलमान सिंधियों को भी था। यह रिश्ता विभाजन के बाद भी बना रहा। बेशक अब वे अलग और 'दुश्मन' देश के वासी थे, पर उनकी ज़बान, उनके गीत, उनकी लोरियां एक ही थीं। यही वजह थी कि 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय पाकिस्तान में मशहूर शायर शेख अयाज ने अपने हिन्दू दोस्त और तब भारत आ चुके सिंधी कवि नारायण श्याम को संबोधित कर एक विवादास्पद नज्म लिखी-  
यह संग्राम...! सामने है नारायण श्याम !
इस पर कैसे बंदूक उठाऊँ! इस पर गोली कैसे चलाऊँ...!
ये एक उलझा हुआ रिश्ता था जिसे बनाये रखने की कीमत शेख अयाज को जेल जाकर चुकानी पड़ी थी।

सिंध प्रांत न बनाने की ऐतिहासिक भूल को 1956 में भी ठीक किया जा सकता था, जब राज्यों का पुनर्गठन  हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि प्रान्तों का गठन एक प्रशासनिक इकाई की तरह हो, न की भाषाई आधार पर, लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत राज्यों की सरहदें भाषाओँ कि बिना पर ही खींचीं। इसने सिंधी भाषा के लिए हमेशा के लिए एक मुश्किल खड़ी कर दी। जहाँ दूसरी भाषाओं को राज्य का सहारा मिला, वही संस्कृत और उर्दू के अलावा सिंधी तीसरी ऐसी भाषा बनी जो संविधान के आठवें शेड्यूल में तो थी पर उसका कोई राज्य नहीं था। उस वक्त देशभर में बिखरे सिंधियों के लिए अपने राज्य के लिये आंदोलन करने से ज्यादा जरूरी था जिन्दा बचे रहना। इसलिये छिटपुट मांगें उठती रहीं, पर कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। अपने लिए अलग राज्य की मांग अब सिंधी नेता अक्सर उठाते हैं पर किसी राज्य से जमीन लेकर नया सिंध बनाना एक ऐसा बवाल है, जिसमें कई शान्तिप्रिय सूफीवादी सिंधी नहीं पड़ना चाहते। इसलिए कुछ सिंधी नेता 'लैंडलेस स्टेट' की माँग करते हैं। उनका तर्क है कि जब भारत सरकार ‘तिब्बत गवर्नमेंट इन एक्साइल’ की अनुमति दे सकती है तो सिंधी तो भारतमाता के सपूत हैं। फार्मूला कोई भी हो, अलग सिंध प्रान्त न सिर्फ सिंधियों के लिये बल्कि सभी देशवासियों के लिए गर्व का विषय होगा, क्योंकि सिंध के बगैर हमारा राष्ट्रगान अधूरा है। जैसा कि बिहार के हेमंतसिंह अपनी किताब 'आओ हिंद में सिंध बनायें' में लिखते हैं, ''हमें कच्छ के निकट समुद्र से कुछ जमीन रिक्लेम कर सिंध बनाना चाहिए जो न सिर्फ सिंधी संस्कृति का केन्द्र हो, बल्कि एक बंदरगाह और बड़ा व्यापार केन्द्र भी हो। यह हमारे राष्ट्रगान में आ रहे सिंध शब्द का सम्मान होगा और राष्ट्रगान पूरा होगा।'' सिंधियों के राजनीतिक पुनर्स्थापन के लिये एक और फार्मूला जो सिंधी काउन्सिल ऑफ इण्डिया ने अपनी माँगों में रखा, वह है संविधान संशोधन के जरिये लोकसभा में 14, राज्यसभा में 7 और अलग-अलग विधानसभाओं में 5 से लगाकर 15 सीटों तक सिंधियों के लिए आरक्षित करना ताकि राज्य न होने की भरपाई की जा सके।


राज्य न होने का सबसे बड़ा नुकसान सिंधी भाषा संस्कृति ने भुगता है। फारसी और अंग्रेजी ने यह साबित किया है कि भाषा के विकास में राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। हालांकि भारत सरकार ने 1968 में सिंधी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर इस नुकसान की कुछ भरपाई की है, पर यह काफी नहीं है। सिंधी इतिहासकार मोहन गेहानी कहते हैं कि सरकार कम से कम इतना तो करती कि भारत भवन की तर्ज पर एक बड़ा सांस्कृतिक केन्द्र बनवा देती, जहाँ सिंधियों की 5000 साल पुरानी संस्कृति और कलाओं के संवर्धन का काम हो सकता। या फिर सिंधियों को भाषाई अल्पसंख्यक मानते हुए सरकार उनके हितों की रक्षा कर सकती थी, परन्तु राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में ऐसा हो न सका जबकि हमारा संविधान भाषाई और धार्मिक  अल्पसंख्यकों में कोई भेदभाव नहीं करता। यहां तक कि दूरदर्शन पर अलग सिंधी चैनल की मांग को भी सरकार ने नहीं माना है।

सिंधु नदी जिसके नाम पर हिन्दू और हिन्दुस्तान का नाम पड़ा, के वारिसों की भाषा और संस्कृति आज खतरे में है। सिंधी भाषा के खत्म हो जाने का अंदेशा जताते सिंधी कवि नारायण श्याम लिखते हैं ''अल्लाह यूँ न हो कि हम किताबों में पढ़ें, कि थी एक सिंध और सिंध वालों की बोली...।'' सिंधी साहित्यकार स्व. कृष्ण खटवानी कहते थे, ''मैं कैसे कोई गीत लिखूँ। मेरी कलम सिंधु नदी के किनारों की ठण्डी हवाओं में ही चलती है। सिंध के बगैर मैं सिंधी में कैसे लिख सकता हूँ।''

'ग्लोबल विलेज' बनती जा रही इस दुनिया में भाषा और संस्कृति का रोना शायद बेवजह का स्यापा लग सकता है। पर भाषाएं अकेले नहीं मरतीं, उनके साथ सदियों से इकठ्ठा किया पारम्परिक लोक-ज्ञान भी मर जाता है। मुहावरे अकेले नहीं मरते- उनके साथ उस समाज के जीवन-मूल्य और जीने का फलसफा भी चला जाता है। जब कोई समाज अपनी लोरियाँ भूल जाता है तो क्या बच्चे सचमुच उसी तरह से बड़े होते हैं जैसे वे होते आये थे। एक भाषा के मर जाने से सिर्फ उस भाषा को बोलने वाले समाज का नुकसान नहीं होता, बल्कि पूरी दुनिया से जीने का ढंग हमेशा के लिये कुछ कम हो जाता है। आज सिंधी संस्कृति के इस प्रतीक-पर्व पर सिंधी भाषा संस्कृति को बचाये रखने की जरूरत पर बात करने का मौका भी है और दस्तूर भी। सिंधियों की कुर्बानी की खातिर न सही तो इस रंग-बिरंगी दुनिया को बेरंग होने से बचाने के लिये ही सही।

आज चेटीचण्ड पर सिंधी अपने भगवान दरियाशाह की पूजा करेंगे। उसी ‘दरियाशाह‘  की पूजा, जिसके भरोसे उनके पूर्वज अपनी नावें दरिया की उफनती लहरों में डालकर व्यापार करने दूर देश जाते थे। उसी दरियाशाह की पूजा जिसके भरोसे वे एक दिन अचानक अपना घर छोड़कर एक अन्जान देश, धरती पर बसने चले आये थे। आज आप जब दफ्तर-दुकान से घर लौट रहे होंगे तो शायद चेटीचण्ड के जुलूस की वजह से आपको घर पहुँचने में थोड़ी देर हो जाये। आपका झुंझलाना वाजिब है। घर पहुँचने की जल्दी सबको होती है, पर उस घड़ी एक पल आप उन लाखों सिंधियों के बारे में जरूर सोचियेगा, जो 70 साल पहले अपने घरों से निकले थे और फिर कभी घर वापस नहीं गये ताकि आप आज देर से ही सही पर आजादी से अपने घर जा सकें।

संजय वर्मा

imsanjayverma@yahoo.co.in

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